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मंगलवार, 18 जुलाई 2017

अमिताभ बच्चन की फ्लॉप फिल्मों के साथ ख़त्म मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा

अमिताभ बच्चन के कथित सुपरस्टारडम के पीछे दो फिल्म निर्माता निर्देशकों की फिल्मों का ख़ास योगदान है। यह दो  निर्माता हैं प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई।  प्रकाश मेहरा की फिल्म ज़ंजीर ने लगातार  फ्लॉप फिल्म दे रहे अमिताभ बच्चन के पैर फिल्म इंडस्ट्री में जमा दिए।  उनका एंग्री यंग मैन बॉलीवुड फिल्मों की कहानियों के इमोशनल नायकों पर भारी पड़ने लगा।  ज़ंजीर के चार साल बाद, मनमोहन देसाई ने अमिताभ बच्चन को लेकर अपनी पहली फिल्म अमर अकबर अन्थोनी बनाई।  इसके बाद इन दोनों फिल्मकारों ने अमिताभ बच्चन के साथ परवरिश, सुहाग, नसीब, देश प्रेमी, कुली, मर्द, हेरा फेरी, मुकद्दर का सिकंदर, लावारिस, नमक हलाल और शराबी जैसी सुपर हिट फ़िल्में बनाई।  इन फिल्मों ने अमिताभ बच्चन को सुपर स्टार, मेगा स्टार, वन मैन इंडस्ट्री जैसे न जाने कितने खिताब दिलवाए।  लेकिन, इन दोनों ही फिल्मकारों का करियर अमिताभ बच्चन के साथ फ्लॉप फिल्मे देने के साथ ही ख़त्म हो गया।  पहले मिडास टच रखने वाले मनमोहन देसाई गए।  उनकी अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म गंगा जमुना सरस्वती २९ दिसंबर १९८८ को रिलीज़ हुई।  इस फिल्म में अमिताभ बच्चन के साथ मिथुन चक्रवर्ती, मीनाक्षी शेषाद्रि, जयाप्रदा, अमरीश पूरी और निरूपा राय भी साथ दे रहे थे।   उस समय मिथुन चक्रवर्ती अपने डांस के कारण
भारतीय माइकल जैक्सन बने हुए थे।  उम्मीद की जाती थी कि यह स्टार कास्ट एक सफल फिल्म देगी।  फिर तीन साल पहले ही तो मनमोहन देसाई ने कुली जैसी हिट फिल्म दी थी।  लेकिन, हुआ बिलकुल उल्टा।  यह फिल्म पूरे हिंदुस्तान में २७० थिएटरों में रिलीज़ हुई।  लेकिन, दो हफ़्तों में ही बॉक्स ऑफिस ने फिल्म के धराशाई होने का ऐलान कर दिया।  गंगा जमुना सरस्वती ने जहाँ पहले हफ्ते में १२.७६ लाख के कलेक्शन के साथ ९५ प्रतिशत की दर्शक संख्या बटोरी।  वहीँ दूसरे हफ्ते में यह फिल्म २८ प्रतिशत की दर्शक संख्या में आ गई।  उस समय किसी फिल्म के लिए आठ हफ़्तों तक ७५ प्रतिशत बिज़नेस करना ज़रूरी होता था, ताकि हिट का टैग मिल सके। १९८९ अमिताभ बच्चन, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई के करियर के लिए खतरनाक साबित हुआ।  इस साल मनमोहन देसाई के बैनर की फिल्म तूफ़ान और प्रकाश मेहरा की फिल्म जादूगर रिलीज़ हुई।  कहा जाता है कि जादूगर और तूफ़ान एक ही दिन रिलीज़ हुई थी।  लेकिन, वास्तविकता यह नहीं है। तूफ़ान ३ जुलाई १९८९ को रिलीज़ हुई, जबकि जादूगर २५ अगस्त १९८९ को रिलीज़ हुई थी।  लेकिन, बॉक्स ऑफिस पर दोनों का हश्र एक सा हुआ।  यह दोनों फ़िल्में काफी बड़ी और दर्शकों की नब्ज़ पहचानने वाले फिल्मकारों की फ़िल्में थी। हालाँकि,  तूफ़ान के डायरेक्टर मनमोहन देसाई नहीं थे।  इस फिल्म का डायरेक्शन  मनमोहन देसाई के बेटे  केतन देसाई  कर रहे थे, जिनका  फिल्म अल्लाह रक्खा से फ्लॉप डेब्यू हुआ था।  उम्मीद की जा रही थी कि तूफ़ान  केतन का करियर संवार देगी।  लेकिन यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह जा गिरी।  इसके बाद जादूगर रिलीज़ हुई।  जादूगर उस प्रकाश मेहरा की फिल्म थी, जिसने अमिताभ बच्चन के साथ शराबी जैसी हिट फिल्म बनाई थी।  लेकिन, प्रकाश मेहरा और अमिताभ बच्चन की जोड़ी का जादू नहीं चला।  जादूगर भी बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से असफल ही।   गंगा जमुना सरस्वती और तूफ़ान के बाद जादूगर अमिताभ बच्चन की तीसरी बड़ी असफलता थी।  इस फिल्म के फ्लॉप होने के बाद अमिताभ बच्चन का करियर ख़त्म मान लिया गया था। मैं आज़ाद हूँ की असफलता ने इसकी पुष्टि जैसी कर दी थी। अब यह बात दीगर है कि  आज का अर्जुन और हम ने अमिताभ बच्चन के करियर को नई दिशाएं दे दी।  लेकिन, उन्हें सुपर स्टार बनाने वाले प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई का फिल्म करियर बिलकुल ख़त्म हो गया।  

शनिवार, 23 जुलाई 2016

टाइटल अजीबो गरीब

इस हफ्ते रिलीज़ होने जा रही, निर्माता सुजॉय सरकार की फिल्म 'TE3N ' बॉलीवुड के विचित्र टाइटल वाली फिल्मों की लम्बी सीरीज में विचित्र टाइटल वाली  ताज़ातरीन फिल्म हैं।  इस फिल्म का टाइटल हिंदी में नहीं। अंग्रेजी टाइटल में टीई और एन के बीच इंग्लिश का ३ है।  इससे यह आभास तो होता ही  है कि फिल्म का टाइटल TEEN (टीन यानि किशोर/किशोरी) होगा।  लेकिन, अंकों में लिखा ३ थोड़ा धोखा भी देता है और उत्सुकता भी जगाता है।  यह फिल्म  वास्तव में तीन चरित्रों की एक गुमशुदा लड़की को खोजने की सस्पेंस थ्रिलर  कहानी है।  
विचित्र साइलेंस 
विचित्र टाइटल वाली फिल्मों का सिलसिला मूक फिल्मों के युग से ही शुरू हो गया था।  १९२० में रिलीज़ श्रीराम पाटनकर की फिल्म द एनचांटेड पिल्स उर्फ़ विचित्र गुटिका टाइटल इसका उदाहरण है।  जे जे मदन की १९२३ में रिलीज़ फिल्म का टाइटल पत्नी प्रताप था।  फिल्मों को आवाज़ मिलने से पहले के साल यानि १९३० में अलबेलो सवार, भोला शिकार, चतुर सुंदरी, डॉटर ऑफ़ अख्तर नवाज़ आउटलॉ, जवान मर्द उर्फ़ डैशिंग हीरो, स्पार्कलिंग युथ उर्फ़ जगमगाती जवानी और रसीली रानी जैसे टाइटल वाली मूक फ़िल्में रिलीज़ हुई।  
बोली भी तो विचित्र---!
चलती फिरती फिल्मों के साल यानि १९३१ में मीठी छुरी जैसे टाइटल वाली साइलेंट फिल्म तथा फौलादी फरमान, गायब ए गरुड़ उर्फ़ ब्लैक ईगल, थर्ड वाइफ और तूफानी तरुणी जैसे टाइटल वाली फ़िल्में रिलीज़ हुई। साफ़ तौर पर, युग चाहे मूक रहा हो या सवाक  फिल्मों का, समाजिक फ़िल्में बनती हो या एक्शन फंतासी फ़िल्में, विचित्र शीर्षकों पर फिल्मों के नाम रखने का सिलसिला लगातार चला आ रहा है।  कभी निर्माता अपनी फिल्मों का कथ्य समझाने के लिए या दर्शकों में उत्सुकता पैदा करने के लिए फ़िल्मों के शीर्षक अजीबो गरीब रख देता है।  कॉमेडी शैली की फिल्मों के शीर्षक तो अपने आप में हास्य पैदा करने वाले होते हैं।  
हंसोड़ विचित्रता 
यह जताने के लिए कि कोई फिल्म कॉमेडी है, विचित्र या ऊटपटांग टाइटल रखा जाना स्वभाविक है।  हू हू हा हा ही ही, अपलम चपलम, तेल मालिश बूट पॉलिश, मुर्दे की जान खतरे में, मिस कोका कोला, मैं शादी करने चला, लडके बाप से बढ़ के, लड़की पसंद है, कुंवारी या विधवा, इसकी टोपी उसके सर, हम तो मोहब्बत करेगा, फॉर लेडीज ओनली, गुरु सुलेमान चला पहलवान, घर में राम गली में श्याम, दो नंबर के अमीर, दो लडके दोनों कड़के,  दामाद  चाहिए,  हंसो हंसो ऐ दुनिया वालों, चलती का नाम गाडी, बढती का नाम दाढ़ी, मुर्दे की जान खतरे में, अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान, गुरु सुलेमान चेला पहलवान, बाप नंबरी तो बेटा दस नम्बरी, धोती लोटा और चौपाटी, आदि टाइटल फिल्म के कॉमेडी होने की ओर इशारा कर रहे हैं।  इस लिहाज़ से दादा कोंडके का जवाब नहीं।  उनकी फिल्मों के टाइटल और संवाद द्विअर्थी हुआ करते थे।  उन्होंने हिंदी में तेरे मेरे बीच में, अँधेरी रात में दिया तेरे हाथ में, आगे की सोच जैसी द्विअर्थी टाइटल और संवाद वाली सफल फ़िल्में बनाई।  वही थोड़ा रूमानी हो जाएँ आम कॉमेडी फिल्मों से हट कर कॉमेडी फिल्म का टाइटल है।  
सामजिक फिल्मों के विचित्र टाइटल 
सामाजिक फिल्मों के विचित्र टाइटल फिल्म के कंटेंट की ओर भी इशारा करते हैं।  ख़ास तौर पर दहेज़ जैसी  महिला समस्या को लेकर ऐसे टाइटल वाली फ़िल्में खूब बनी।  बन्दूक दहेज़ के  सीने पे,  ज्वाला दहेज़ की, दूल्हा बिकता है, सस्ती दुल्हन महंगा दूल्हा, आदि विचित्र शीर्षकों वाली फ़िल्में दहेज़ की गम्भीर समस्या पर थी।  इनके अलावा एक फूल तीन कांटे, फैशनेबुल वाइफ,  अकेली मत जइयो, आप तो ऐसे न थे, बाली उमर को सलाम, बिन माँ के बच्चे, ग्यारह हजार लड़कियां, कब तक चुप रहूंगी, कितना बदल गया इंसान, मैं और मेरा हाथी, मैं नशे में हूँ, मेरा पति सिर्फ मेरा है, प्यार करने वाले कभी कम न होंगे, प्यार किया है प्यार करेंगे, क़ैद में है बुलबुल, यहाँ से शहर को देखो, उधार का सिन्दूर, समाज को बदल डालो, आदि फ़िल्में किसी न किसी सामाजिक समस्या पर फ़िल्में थी।  
यह लड़की लड़ैत है 
कुछ फिल्मों के विचित्र टाइटल नायिका के लड़ैत यानि एक्शन हीरोइन होने की ओर इशारा करते हैं। सीतापुर की गीता, सिपाही की सजनी, सिन्दूर और बन्दूक, टार्ज़न की बेटी, मिस फ्रंटियर मेल, मिस कोका कोला, मेहनि बन गई खून, मैं चुप नहीं रहूंगी, मैं अबला नहीं हूँ,  हातिमताई  की बेटी, एलीफैंट क्वीन, दिलरुबा तांगेवाली, डाकू की लड़की, कार्निवाल क्वीन, बसंती तांगेवाली, बम्बई की बिल्ली, बागी हसीना, आलम आरा की बेटी, अफलातून औरत,  जंगल की बेटी, आदि फिल्मों की नायिका समाज से सताई हुई, बलात्कार या अन्याय की शिकार और तंग आ कर हथियार उठा लेने वाली औरत थी।  
विचित्र कामुकता 
कामुक या सेक्सी फिल्मों के टाइटलों में भी विचित्रता दिखाई देती है।  लेकिन, यह टाइटल बताते हैं कि फिल्म सेक्सी है।  नायिका का  उदार अंग प्रदर्शन और बिस्तर के दृश्यों की गारंटी होते हैं यह अजीबोगरीब टाइटल।  जवानी की भूल, जंगल ब्यूटी, एक्ट्रेस क्यों  बनी,  बैडरूम स्टोरी, भटकती जवानी, मन तेरा तन मेरा, आदि टाइटल वाली फिल्मों की नायिका कपडे  उतार फेंकने में उदार थी।  यह टाइटल फिल्म के सी-ग्रेड की होने की ओर भी इशारा करते हैं।  
हॉलीवुड फिल्मों को विचित्र टाइटल 
आजकल हॉलीवुड की ज़्यादातर फ़िल्में हिंदी में डब कर रिलीज़ की जाने लगी है।  इनके हिंदी टाइटल आम तौर पर मूल टाइटल को हिंदी में लिख कर ही रख दिए जाते जाते हैं।  लेकिन, मज़ा तब आता है, जब यह खालिस हिंदी में रखे जाते हैं।  ऐसे में  वुल्फ ऑफ़ वाल स्ट्रीट, दलाल स्ट्रीट का भेदिया बन जाता है।  अमेरिकन हसल को अमेरिकी धोखा कहा जाता है।  हॉरर फिल्म द कजउरिंग का टाइटल शैतान का बुलावा और मैन ऑफ़ स्टील आदमी इस्पात का हो जाता है।  कुछ दूसरी हॉलीवुड फिल्मों के विचित्र हिंदी टाइटल वाली फिल्मों का ज़िक्र आगे किया गया है। इनमे रैट ए टू ई (बिंदास बावर्ची, अप (उड़न छू), द लीजन (मौत के फरिश्ते), स्टुअर्ट लिटिल २ (छोटे मियां क्या कहना), मॉन्स्टर इंक (डर की दूकान), पोम्पेइ (क़यामत की रात), हेल बॉय (नरक पुत्र) फाइनल डेस्टिनेशन ३ (मौत का झूला), घोस्ट राइडर (महाकाल बदले की आग), डीप ब्लू सी (मौत का समुन्दर), चार्लीज़ एंजल्स (त्रिशक्ति), रेजिडेंट ईविल (प्रलय-अब होगा सर्वनाश, वर्ल्ड वॉर जेड (प्रेतों का आतंक) कैप्टेन अमेरिका (महादबंग), आयरन मैन  ३ (फौलादी रक्षक), द हीट (गरमी),  इन्सेप्शन (सपनो का मायाजाल चक्रव्यूह), डंस्टन चेक्स इन (एक बन्दर होटल के अंदर), स्टार वार्स: अटैक ऑफ़ द क्लोन्स (हमशक्लों का हमला), लारा क्रॉफ्ट: तुंब रेडर (शेरनी नंबर १),  किस ऑफ़ द ड्रैगन (मौत का चुम्मा), आई एम लीजेंड (ज़िंदा हूँ मैं), नाईट ऐट द म्यूजियम (म्यूजियम के अंदर फँस गया सिकन्दर), द सिक्स्थ डे (मुक़ाबला अर्नाल्ड का) और प्लेनेट ऑफ़ एप्स (वानर राज)   विचित्र टाइटल उल्लेखनीय हैं।  
विचित्र भोजपुरी 
भोजपुरी फिल्मों  के टाइटल की विचित्रता बेजोड़ है।  सीरियस से सीरियस फिल्म के टाइटल पढ़ कर आपकी हंसी नहीं रुक सकती।  अब पढ़िए न लैला   माल बा छैला  धमाल बा, अज़ब देवर की गज़ब भौजाई , मिया अनाड़ी बा बीवी खिलाड़ी बा, ए बलमा बिहार वाला, ल ही डांटा हिलवल आधा घंटा, ठोंक देब, रिक्शावाला आई लव यु, सैया जिगरबाज, पेप्सी पी के लागेलू सेक्सी, मेहरारू बिना रतिया कैसे कटी, सास रानी बहु नौकरानी, लहरिया लूट ए राजाजी, आदि भोजपुरी फिल्मों के नाम।  

बुधवार, 1 जून 2016

जब मिल जाएँ तीन यार, हो जाये ‘हाउसफुल’ !

१९८४ में रिलीज़ अमिताभ बच्चन की फिल्म शराबी में संगीतकार बप्पी लहरी ने एक गीत रचा था- जहाँ चार यार मिल जाएँ वहीँ रात हो गुलजार।  हालाँकि, एक अमीर आदमी के शराबी पुत्र की इस कहानी में रोमांस था और उनकी  इंस्पेक्टर बने दीपक पराशर की दोस्ती की कहानी थी।  इस गाने से एक बात तो साफ़ होती ही है कि जहाँ चार यार  मिल जाएँ, वहीँ रात हो गुलजार, लेकिन जब फिल्म की कहानी दो किरदारों की दोस्ती की कहानी है तो यह सोचा जाना लाजिमी है कि जहाँ तीन यार मिल जाएँ तो क्या होता होगा ?
तीन दोस्तों की दोस्ती की मस्ती और धमाल
इस हफ्ते निर्माता साजिद नाडियाडवाला की साजिद फरहाद निर्देशित फिल्म हाउसफुल ३ रिलीज़ हो रही है। यह फिल्म तीन दोस्तों सैंडी, बंटी और टेडी की कहानी है।  इन भूमिकाओं को अक्षय कुमार, अभिषेक बच्चन और रितेश देशमुख कर रहे हैं।  जब तीन यार मिल जाएँ तो रोमांस भरा धमाल तो होना ही है।  जी हाँ, हाउसफुल फ्रैंचाइज़ी की इस तीसरी फिल्म में खूब मस्ती और कॉमेडी है। इनके साथ जैक्विलिन फर्नाडीज, नर्गिस फाखरी और लिसा हैडन का ग्लैमर और सेक्स अपील भी है। इसमें कोई शक नहीं कि जब तीन दोस्त मिलते हैं तो गज़ब की कॉमेडी होती है।  फिल्म मस्ती हो या ग्रैंड मस्ती या फिर आने वाली ग्रेट ग्रैंड मस्ती, फुल 2 फुलटॉस मस्ती है।  इसे आप द्विअर्थी या अश्लील मस्ती भी कह सकते हैं।  विवेक ओबेरॉय, रितेश देशमुख और आफताब शिवदसानी की दोस्त तिकड़ी हंसाते हंसाते लोटपोट कर देती है।  यही कारण है कि निर्देशक लव रंजन की २०११ में रिलीज़ तीन दोस्तों रजत, निशांत और विक्रांत की कॉलेज की दोस्ती की दास्ताँ स्लीपर हिट साबित होती है। बावजूद कार्तिक आर्यन, दिव्येंदु शर्मा और रायो एस बखिर्ता के नए चेहरों के।  यहाँ तक कि इस फिल्म का सीक्वल भी हिट साबित होता है।  प्रियदर्शन ने २००० में तीन दोस्तों के साथ कॉमेडी को नए आयाम दिए थे। राजू, घनश्याम और बाबूराव गणपत राव आप्टे की इस कॉमेडी चखचख में साफ़ सुथरा हास्य भरा था।  अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी और परेश रावल ने कॉमेडी का कुछ ऐसा बारूद बनाया था कि हेरा फेरी की फ्रैंचाइज़ी बन गई।  फिर हेरा फेरी के बाद खबर थी कि तीसरी फिल्म में अक्षय, सुनील और परेश नहीं होंगे।  लेकिन, बात नहीं बनी। निर्माता फ़िरोज़ नाडियाडवाला को इन्हीं तीनों की हेरा फेरी चाहिए।  बासु चटर्जी ने १९८२ में तीन बूढ़े दोस्तों की कहानी शौक़ीन में दिखाई  थीजो एक मॉडल पर लाइन मारने लगते हैं।  अपनी साफ़ सुथरी कॉमेडी कारण यह फिल्म हिट हुई थी।  इसके बाद २०१४ में इस फिल्म का रीमेक पियूष मिश्र, अनुपम खेर और अन्नू कपूर के साथ द शौकीन्स बनाया गया तो दर्शकों  ने इसे नापसंद कर दिया। अनीस बज़्मी की फिल्म नो एंट्री इसी फार्मूला पर फिल्म थी। मनमोहन देसाई ने अपनी फिल्मों में तीन दोस्तों के फॉर्मूले को  खूब आज़माया।  
नज़रिए का फर्क
हॉउसफुल, मस्ती और हेरा फेरी की फ्रैंचाइज़ी  फिल्मों की शैली कॉमेडी कॉमेडी और सिर्फ कॉमेडी है।  वहीं, कभी लेखक के नज़रिए का फर्क किरदारों के सोचने में फर्क पैदा कर देता है।  तीन हँसते खेलते दोस्तों की ज़िन्दगी में गम्भीर मोड़ आ जाता है।  तीनों दोस्त किरदार अपने रोमांस के साथ गम्भीर हो जाते हैं।  कदाचित इस नज़रिए की शुरुआत फरहान अख्तर ने फिल्म दिल चाहता है से की थी।  हँसते, मज़ाक करते और बेपरवाह नज़र आते आमिर खान, सैफ अली खान और अक्षय खन्ना के किरदार खुद की ज़िन्दगी में आये मोड़ से भावुक हो जाते हैं। वह परवाह करने वाले ज़िम्मेदार बन जाते हैं।  कुछ ऐसा ही काई पो चे, रंग दे बसंती, रॉक ऑन, ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा में भी देखने को मिलता है।  राजकुमार हिरानी की फिल्म ३ इडियट्स इसे शिक्षा की ऊंचाइयों तक पहुंचा देती है।  रंग दे बसंती के तीन दोस्त सिस्टम को बदलने के लिए हथियार उठा  लेते हैं। 
दो लडके एक लड़की : क्या होता है !
जब तीन दोस्त मर्द हो तो धमाल होता है, क्लाइमेक्स में थोड़ी सीरियसनेस भी आती है।  लेकिन---अगर इन तीन किरदारों में से कोई एक लड़का या लड़की हो तब ! शायद महबूब खान ने पहली बार फिल्म में इस नज़रिए को दिखाने की कोशिश की थी।  फिल्म थी अंदाज़।  दोस्त थे दिलीप कुमार, राजकपूर और नर्गिस।  क्या दो मर्दों के साथ एक औरत की दोस्ती हो सकती है।  महबूब ने यह बताने की कोशिश की थी कि मनमुटाव तो होना ही है।  लेकिन, समझदारी बड़े काम की चीज़ है।  एक दोस्त को बलिदान देना चाहिए।  बलिदान का यह फार्मूला राज कपूर ने फिल्म संगम में भी दिखाया।  राजकपूर और वैजयंतीमाला के लिए राजेंद्र कुमार को बलिदान करना पड़ा।  इस बलिदान को १९८८ में सनी देओल, अनिल कपूर और श्रीदेवी के साथ सुनील हिंगोरानी ने भी दोहराया।  सनी देओल को बलिदान देना पड़ा।  लॉरेंस डिसूज़ा की फिल्म साजन में सलमान खान अपने दोस्त संजय दत्त के लिए माधुरी दीक्षित का बलिदान कर देते हैं। 
दो लडकिया, एक लड़का : तब क्या होता है !
जब दोस्ती से उपजे रोमांस फिल्मों के किरदारों में थोड़ा फर्क कर दिया जाता  है यानि आपस में दोस्त  दो  लड़कियां एक ही लडके को प्यार करने लगें तो क्या होता हैं ! यहाँ एक ख़ास बात शाहरुख़ खान ने  ऐसी कई फिल्मों में काम किया है, जिनमे एक लड़के से दो लड़कियां प्रेम करने लगाती हैं।  कुछ कुछ होता है में  काजोल और रानी मुख़र्जी, दिल तो  पागल में करिश्मा कपूर और माधुरी दीक्षित, देवदास में ऐश्वर्या राय और माधुरी दीक्षित और जब तक है जान में कैटरिना कैफ और अनुष्का शर्मा के किरदार शाहरुख़ खान के किरदार से प्रेम करती हैं।  इन इन दो औरतों में से एक बलिदान देती है। यहां एक ख़ास नुक्ता है ।  यह बलिदान भारतीयता की झलक मारती नारी के लिए आधुनिक नायिका को देना पड़ता है।  कॉकटेल में दीपिका पादुकोण सैफ अली खान को केवल इस कारण से खो देती हैं, क्योंकि वह आधुनिकता के रंग में रंगी थी।  मुझसे दोस्ती करोगे में इकलौते ह्रितिक रोशन से रानी मुख़र्जी और करीना कपूर प्यार  करती हैं। विदेश से आई करीना कपूर बलिदान करती है।  सलमान खान को भी हर दिल जो प्यार करेगा और चोरी चोरी चुपके चुपके जैसी फिल्मों में दो नायिकाएं प्यार करती हैं। इन सभी रोमांस की शुरुआत दोस्ती से ही होती है। 
शाहरुख़ खान का हटके अंदाज़
शाहरुख़ खान की रोमांस फिल्मों में दो नायिका भी थी और दो नायक भी।  मतलब दो स्त्रियां उनसे रोमांस कराती हैं या उनके साथ दूसरा नायक भी इकलौती नायिका से प्रेम करने लगता है।  इस रोमांस में खान दो नए रंग पेश करते हैं।  वह बलिदान देना नहीं जानते।  बाज़ीगर, डर और अंजाम जैसी फिल्मों में वह खून खराबा करने पर उतर आते हैं।  बाज़ीगर में तो वह अपने से प्यार करने वाली शिल्पा शेट्टी की हत्या कर  देते हैं और काजोल को भी मारने का प्रयास करते हैं।  डर और अंजाम फिल्मों में वह जूही चावला और माधुरी दीक्षित के किरदारों को पाने के लिए खून बहाने से पीछे नहीं हटते । 

ज़ाहिर है कि तीन दोस्तों की दोस्ती धमाल करने वाली होती है।  बलिदान भी होता है, लेकिन हाउसफुल ३ में ऐसी कोई गुंजायश नहीं।  तीनों नायकों की एक एक नायिका है।  आगामी कई फिल्मों में  इस प्रकार के कई रंग देखने को मिल सकते हैं।   क्योंकिहिंदी फिल्मों को यार बिना  चैन कहाँ रे !  

Actors who aced the Anti-Hero roles on screen

  Bollywood has always loved its heroes, but it's the anti-heroes, the flawed, unpredictable, and dangerous ones, who often steal the sh...